Menu

अर्जुन, ककुभ -Arjuna के औषधीय गुण

वैज्ञानिक नाम
Treminalia arjuna (Roxb.) Wight& Arn.
कुलनाम
Combretaceae
अंग्रेजी नाम
Arjuna
संस्कृत
अर्जुन, धवल, संबर, इन्द्रदु, ककुभः
हिंदी
अर्जुन, काहू
गुजराती

સોલ્યુશન્સ, પ્લેટ્સ, હળ
मराठी

SADURU, ARJUN, SANDRA
बंगाली
অর্জুন, গাব
तेलगु

Dharrmchci
द्रविड़ी


Vella, oven
कन्नड़


ಸಮುದಾಯ
मारवाड़ी Arjun
पंजाबी ਕਾਉ, ਕੋਹਾ
                                                        

                                                                                                             अर्जुन का पौधा

अर्जुन का परिचय:-

पहाड़ी क्ष्रेत्रों में नदी, नालों के कीनांरे 80 फुट तक ऊँचे पंक्तिबद्ध हरे पल्ल्वों के वल्कल ओढ़े अर्जुन के वृक्ष ऐसे लगते हैं, जैसे महाभारत के पार्थ की तरह अनेक महारथी अक्षय तरकशों में अगणित अस्त्र लिये, प्रस्तुत हो तथा महासमर में अनेक व्याधिरूपी शत्रुओं को नेस्तनाबूत करने को एकत्र हुए हों। अर्जुन का वृक्ष जंगलों में पाया जाता है, इस पर बैशाख-ज्येष्ठ में फूल खिलते है और जाड़े में फल आते है।

                                                                                                                बाह्य-स्वरूप

इसका कांड स्थूल, गोलाई में 10 से 20 फिट तक होता है। काण्ड त्वक ऊपर से श्वेताभ, चिकनी, 1/3 इंच तक मोटी, अंदर से रक्तवर्ण की होती है। वाहा त्वचा वर्ष में एक बार सर्प केंचुल के समान स्वंय गिर पड़ती है। पत्र 3 से 6 इंच तक लम्बे 1-2 इंच तक चौड़े, छोटी-छोटी शाखाओं पर खिन समवर्ती, कहीं विषमवर्ती होते है, जिनका उदरतल चिकना और पृष्ठतल शीरामय एवं रुक्ष होता है। पत्र के पीछे मध्य शिरा के पाशर्व में दो हरे रंग की मधुमय लसिका ग्रंथियां होती है। पुष्प अत्यंत सूक्ष्म हरिताभ श्वेत वर्ण के गुच्छे में लगे होते है। इनमें सुगंध नहीं होती। फल लम्बे, अंडाकर, काष्ठमय, 5 उठी हुई धारियों से युक्त 1-2 इंच तक लम्बे होते हैं। फल के अंदर बीज नहीं होते। अर्जुन के पेड़ का गोंद निर्यास स्वच्छ, सुनहरा, भूरा और पारदर्शक होता है।

                                                                                                                रासायनिक संघठन

अर्जुन की छाल में अनेक प्रकार के रासायनिक घटक पाये जाते हैं। इसमें कैल्शियम कार्बोनेट लगभग 34 प्रतिशत व सोडियम मैग्नीशियम व एल्युमिनियम प्रमुख क्षार हैं। कैल्शियम-सोडियम की प्रचुरता के कारण ही यह हृदय की मांसपेशियों में सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है।

                                                                                                                 गुण -धर्म

अर्जुन शीतल, हृदय के लिए हितकारी, कसैला, क्षत, क्षय, विष, रुधिर विकार, मेद, प्रमेह, व्रण, कफ तथा पित्त को नष्ट करता है। अर्जुन से हृदय की मांसपेशियों को बल मिलता है, हृदय का स्पंदन ठीक और सबल होता है। स्पंदन की संख्या कम हो जाती है। सूक्ष्म रक्तवाहिनियों का संकोच होता है, जिससे रक्त भार बढ़ता है। इस प्रकार इससे हृदय सशक्त और उत्तेजित होता है। इससे रक्त वाहिनियों के द्वारा होने वाले रक्त का स्त्राव भी कम होता है, जिससे यह शोथ को दूर करता है। इसके प्रयोग से रक्तवहस्रोंतों का संकोचन भली प्रकार होने से हृदय रक्त को समस्त शरीर में फेंकने तथा शरीर में फैले हुए समस्त रुधिर को हृदय के अंदर खींचने का कार्य सुगमता से करता है। इसीलिये हृदय एवं रक्तवाहिनियों के शैथिल्य, सर्वांग शोथ, नाड़ी की मंदता, श्वास, कास आदि जीर्ण विकारों में इसका प्रयोग परम् हितकारी है। अर्जुन के प्रयोग से पित्त की विदग्धता और अम्लता कम होकर रक्त में स्वादुता एवं स्थिरता उत्पन्न होती है। जिससे रक्त पित्त तथा अम्लपित्त आदि विशिष्ट पित्तविकारों में लाभ होता है। कसैला होने के कारण यह कफध्न, मूत्र संग्रहणीय और शामक होता है।  यह स्तम्भक और ज्वरध्न भी है। यह विषध्न और हृदय को पुष्ट करने  बृंहण हैं। अर्जुन, शिरीष, ताड़ यह सब सालसारादि गण, कुष्ठरोग नाशक, प्रमेह, पाण्डु रोगनाशक, कफ और मेद का शोषक है। अर्जुन वृक्ष, अश्मभेद, अपामार्ग, गोखरू यह सब वात विकारनाशक हैं। अश्मरी शर्करा कृच्छ, मूत्राघात की पीड़ा को शांत करता हैं। अर्जुन, जामुन मुलहठी बेर ये सब व्रण के लिये हितकारी भग्न को मिटाने वाले रक्त पित्तनाशक, दाह, भेद तथा योनिरोगों को दूर करते हैं।

                                                                                                                   औषधीय प्रयोग

मुखपाक :- इसकी जड़ के चूर्ण में मीठा तेल मिलाकर गर्म पानी से कुल्ले करने से मुखपाक मिटता है।

कर्णशूल :- इसके पत्तों का 3-4 बूँद स्वरस कान में डालने से कर्णशूल मिटता है।

मुंह की झांइयां :- इसकी अंतर् छाल पीसकर शहद मिलाकर लेप करने से मुंह की झाइयां मिटती हैं।

क्षयकास: अर्जुन की छाल के चूर्ण में वासा पत्रों के स्वरस की सात भावना देकर 2-3 ग्राम की मात्रा शहद मिश्री या गोघृत के साथ चटाने से क्षय की खांसी जिसमें कफ में खून आता हो नाश हो जाता है।

धड़कन :- 1. हृदय की सामान्य धड़कन जब 72 से बढ़कर 150 से ऊपर रहने लगे तो एक गिलास टमाटर के रस में 1 चम्मच अर्जुन की छाल का चूर्ण मिलाकर नियमित सेवन करने से शीघ्र ही धड़कन सामान्य हो जाती है।

  1. अर्जुन की मोटी छाल का महीन चूर्ण 1 चम्मच की मात्रा में मलाई रहित 1 कप दूध के साथ सुबह-शाम नियमित सेवन करते रहने से हृदय के समस्त रोगों में लाभ मिलता है, हृदय की बढ़ी हुई धड़कन सामान्य होती है।
  2. गेंहू का आटा 20 ग्राम लेकर 30 ग्राम गाय के घी में भूने लें, गुलाबी हो जाने पर अर्जुन की छाल का चूर्ण 3 ग्राम और मिश्री 40 ग्राम तथा खौलता हुआ जल 100 ग्राम डालकर पकायें, जब हलुवा तैयार हो जाये तब प्रातः सेवन करें। इसका नित्य सेवन करने से हृदय की पीड़ा, घबराहट, धड़कन बढ़ जाना आदि शिकायतें दूर हो जाती है।
  3. गेंहू और इसकी छाल को बकरी के दूध और गाय के घी में पकाकर इसमें मिश्री और मधु मिलाकर चटाने से अति उग्राहृदय रोग मिटता है।

हृदय रोग :- 1. हृदय की शिथिलता में एवं उसमें उत्पन्न शोथ में इसकी छाल का चूर्ण 6 से 10 ग्राम तक गुड़ पर दूध के साथ पकाकर और छानकर पिलाने से रक्त लसीका का जल रक्त वाहिनियों में नहीं भर पाता, फलतः शोथ का बढ़ना रुक जाता है जिससे हृदय की शिथिलता दूर हो जाती है।

  1. अर्जुन की छाल का रस 50 ग्राम, यदि गीली छाल न मिले तो 50 ग्राम सूखी छाल लेकर 4 किलोग्राम जल में पकावें। जब चौथाई शेष रह जाये तो क्वाथ को छान ले, फिर 50 ग्राम गोघृत को कढ़ाई में छोड़े फिर इसमें अर्जुन की छाल का कल्क 50 ग्राम और और पकाया हुआ रस तथा दुग्धादि द्रव पदार्थ को मिला मंद-मंद अग्नि पर पका लें। घृत मात्र शेष रह जाने पर ठंडा कर छान लें। अब इसमें 50 ग्राम शहद और 75 ग्राम कंद या मिश्री मिलाकर कांच या चीनी मिटती के पात्र में रखे। इस घी को 6 ग्राम प्रातः सांय गौदुग्ध के साथ सेवन करें। यह घृत हृदय को बलवान बनाता है तथा इसके रोगों को दूर करता है।
  2. हृदय की शिथिलता, तेज धड़कन, सूजन या हृदय बढ़ जाने आदि तमाम हृदय रोगों में अत्यंत प्रभावकारी योग है।
  3. हार्ट अटैक हो चुकने पर 40 मिलीलीटर काढ़ा सुबह तथा रात दोनों समय सेवन करें। अनुपम हृदय शक्तिवर्धक है।
  4. पूर्ण लाभ के लिए गाय के दूध में काढ़ा बना लेना आवश्यक है। इस क्षीर- -पाक विधि से लेने से दिल की धड़कन तेज होना हृदय में पीड़ा (एन्जाइना) घबराहट होना आदि दूर होता है।
  5. हृदय रोगों में अर्जुन की छाल का कपड़छान चूर्ण का प्रभाव इंजेक्शन से भी अधिक होता है। जीभ पर रखकर चूसते ही रोग कम होने लगता है। इसे सारबिट्रेट गोली के स्थान पर प्रयोग करने पर उतना ही लाभकारी पाय गया। हृदय की अधिक धड़कनें और नाड़ी की गति बहुत कमजोर हो जाने पर इसको रोगी की जीभ पर रखने मात्र से नाड़ी में तुरंत शक्ति प्रतीत होने लगती है। इस दवा का लाभ स्थायी होता है और यह दवा किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाती तथा एलोपैथिक की प्रसिद्ध दवा दिजीटेलिस से भी अधिक लाभप्रद है।
  6. यह उच्च रक्तचाप में लाभप्रद है। उच्च रक्तचाप के कारण यदि हृदय पर शोथ या सूजन उत्पन्न हो गयी हो तो उसको भी दूर करता है।

उदावर्त्त :- मूत्रवेग को रोकने से पैदा हुए उदावर्त्त को मिटाने के लिए इसकी छाल का 40 मिलीलीटर क्वाथ नियमित प्रातः-सांय पिलाना चाहिए।

रक्त अतिसार :- अर्जुन की छाल का महीन चूर्ण 5 ग्राम गाय के 25 ग्राम दूध में डालकर इसी में लगभग आधा पाँव पानी दाल कर मंद आंच पर पकाये। जब दूध मात्र शेष रह जाये तब उतारकर सुखोष्ण हो जाने पर उसमें 10 ग्राम मिश्री या शक्कर मिला, नित्य सवेरे पीने से हृदय संबंधी सब रोग दूर हो जाते है। यह विशेषतः वातदोष हृदय रोग में लाभकारी है। यह अर्जुन सिद्ध दूध जीर्ण ज्वर रक्त अतिसार और रक्त पित्त में भी लाभदायक है।

रक्तप्रदर :- अर्जुन की छाल का 1 चम्मच चूर्ण 1 कप दूध में उबालकर पकायें आधा शेष रहने पर थोड़ी मात्रा में मिश्री मिलाकर दिन में 3 बार सेवन करें।

प्रमेह :- 1. अर्जुन की छाल, नीम की छाल, आमलकी छाल, हल्दी तथा नीलकमल के समभाग 20 ग्राम चूर्ण को 400 मिलीलीटर पानी में पकाकर 100 मिलीलीटर शेष बचे कषाय को मधु के साथ मिलाकर नित्य प्रातः-सांय सेवन करने से पित्तज प्रमेह नष्ट हो जाते है।

  1. अर्जुन की पत्ती, बेल की पत्ती, जामुन की पत्ती, मृणाली, कृष्णा, श्रीपर्णी की पत्ती, मेहंदी की पत्ती, धाय की पत्ती, इन सभी पत्तियों के स्वरस से अलग-अलग खंड यूषों का घी, अम्ल तथा लवण मिलाकर निर्माण करें। ये सभी खांदयुष परम् संग्राहिक होते है।

शुक्रमेह :- शुक्रमेह के रोगी को अर्जुन की छाल या श्वेत चंदन का क्वाथ नियमित प्रातः-सांय पिलाने से लाभ पंहुचता है।

मूत्राघात :- मूत्राघात में अर्जुन की छाल का 40 मिलीलीटर क्वाथ बनाकर पिलाना चाहिए।

अस्थिभंग :- हड्डी टूटने पर प्लास्टर चढ़ा हो तो अर्जुन की छाल का महीन चूर्ण एक चम्मच की मात्रा में दिन में 3 बार एक कप दूध के साथ कुछ हफ्ते तक सेवन करने से हड्डी मजबूत होती जाती है। भग्न के स्थान पर भी इसकी छाल को घी में पीसकर लेप करें और पट्टी बांधकर रखें, इससे भी हड्डी शीघ्र जुड़ जाती है।

शोथ :- गुर्दो पर इसका प्रभाव मूत्रल अर्थात अधिक मूत्र लाने वाला है। हृदय रोगों के अतिरिक्त शरीर के विभिन्न अंगों में पानी पड़ जाने और शरीर पर शोथ आ जाने पर भी अर्जुन का सफलता से प्रयोग किया जाता है।

बादी के रोग :- अर्जुन की जड़ की छाल का चूर्ण और गंगेरन की जड़ की छाल के बराबर मात्रा में चूर्ण कर 2-2 ग्राम की मात्रा में चूर्ण नियमित प्रातः- सांय फंकी देकर ऊपर से दूध पिलाने से बादी के रोग मिटते  है।

रक्तपित्त :- अर्जुन 2 चम्मच छाल को रात भर जल में भिगोकर रखें, सवेरे उसको मसल छानकर या उसको औटाकर उसका क्वाथ पीने से रक्तपित्त में लाभ होता है।

कुष्ठ :- रक्तदोष एवं कुष्ठ रोग में इसकी छाल का एक चम्मच चूर्ण जल के साथ सेवन करने से एवं इसकी छाल को जल में घीसकर त्वचा पर लेप करने से कुष्ठ में लाभ होता है।

ज्वर :- इसकी छाल का 40 मिलीलीटर क्वाथ पिलाने से ज्वर छूटता है।

व्रण :- 1. इसकी छाल को यवकूट कर क्वाथ बनाकर व्रणों और जख्मों को धोने से लाभ होता है।

  1. इसकी जड़ के चूर्ण की फंकी 1 चम्मच दूध के साथ देने से चोट या रगड़ लगने से जो नील पड़ जाता है, वह ठीक हो जाता है।

जीर्ण ज्वर :- इसकी छाल के 1 चम्मच चूर्ण की गुड़ के साथ फंकी लेने से जीर्ण ज्वर मिटता है।

अर्जुन छाल क्षीर पाक विधि :- अर्जुन की ताजा छाल को छाया में सूखाकर चूर्ण बनाकर रख लें। 250 ग्राम दूध में 250 ग्राम (बराबर वजन) पानी मिलाकर हल्की आंच पर रख दें और उसमें उपरोक्त तीन ग्राम (एक चाय का चम्मच हल्का भरा) अर्जुन छाल का चूर्ण मिलाकर उबालें। जब उबलते-उबलते पानी सूखकर दूध मात्र अर्थात आधा रह जाये तब उतार लें। पीने योग्य होने पर छानकर रोगी द्वारा पीने से सम्पूर्ण हृदय रोग नष्ट होते है और हार्ट अटैक से बचाव होता है।

 

Comments

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *